Tuesday 29 October 2013

उग्रतारा सांस्कृतिक महोत्सव में संस्कृति ?

"Ugaratara Sanskritik Mahotsav 2013" was celebrated on 6th and 7th October, 2013 at Mahishi. This was the second celebration of the mahotav and it was a historic evenet. To see the details of the mahotsav , you may visit our website : http:\\usm.mahishi.org

Regarding the organization of Mahotsav, we have collected the reviews of the people, invited guests, performing artists, reporters and common maas who were present during the mahotsav and were witness of the events and are publishing in a series.

Second in the series, we are publishing the review of Shee Kundan Kumar Mishra. Shree Mishra is native of mahishi and is reporting for DAINIK JAGRAN from mahishi. Apart from reporting, Shree Mishra is a social activist also and doing extensive research on the archeological evidences in and around mahishi. Many of the archeologically important materials and manuscripts have been preserved by him and in safe custody. He has published various articles in news papers, magzines, books on the historical, archeological and religious importance of mahishi and is a true social fighter in his own sense. He is also covering "Ugratara sanskritik Mahotsav " since its inception and was present during the mahotsav this year also. Here is present his feelings and review in his own words.

 
उग्रतारा सांस्कृतिक महोत्सव  में संस्कृति ?
(द्वारा :श्री कुंदन कुमार मिश्र , पत्रकार , दैनिक जागरण )

उग्रतारा सांस्कृतिक महोत्सव  में हज़ारों कि संख्यां में उपस्थित लोगों में से शायद ही कुछ प्रतिशत लोग ऐसे होंगे जिसे आयोजित महोत्सव के  उद्येश्य से कुछ सरोकार हो। महोत्सव में उपस्थित राजनीतिज्ञों का मुख्य उद्येश्य सिर्फ  सरकार कि उपलब्धियां गिनाने तक सीमित रहा तो आयोजक मंडल ने  नामचीन  कलाकारों की मदद से भीड़ जुटाने को सफलता का आधार माना। सेमिनार में उपस्थित विद्वानों में से साउथ  एसियन यूनिवर्सिटी के श्री देव नाथ पाठक महोत्सव   आयोजन में   सामाजिक और  सांस्कृतिक सरोकारों कि  खोज करते नज़र आये वहीं  देलहि यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर श्री पंकज कुमार मिश्र मंडन काल में जीवंत संस्था और आज के शैक्षिक एवं सामाजिक संस्थानों में मंडन मिश्र को जीवंत किये जाने के प्रयास पर बल देते नज़र आये। बाकी सारे विद्वान वही पुरानी तोता मैना की कहानियों में ढलते नज़र आये। 

इस वर्ष द्वितीय महोत्सव के पूर्व या पश्चात् इस धरोहर  भूमि के विकास सम्बन्धी योजनाओं पर चर्चा किसी भी मंच से किसी भी द्वारा नहीं की गयी। महोत्सव के मुख्य आयोजन स्थल पर  चंद दिनों पूर्व हुए बारिश के कारण जमा पानी एवं कीचड़ को उद्घाटनकर्ता मंत्रीजी ने भी देखा परन्तु जल निकासी या पूर्व में घोषित स्टेडियम निर्माण की चर्चा तक नहीं हुयी। उद्घाटन के पश्चात् स्टॉलों का निरीक्षण करते समय मंत्री जी ने प्रशासन से ये जानने की ज़रुरत नहीं समझी की सरकारी संश्थानों के अतिरिक्त गैर सरकारी संस्थानों की भागीदारी इतनी कम क्यूँ है? जनता के निजी स्टॉलों को तरज़ीह क्यूँ नहीं दी गयी जबकि कई सारे स्टाल खाली रह गए थे। 

प्रथम दिन के आधी रात तक सांस्कृतिक कार्यकर्मों का लुत्फ़ उठाने वाले मंत्री एवं प्रशासनिक पदाधिकारियों को शायद ये पता ही नहीं की मिथिला सांस्कृतिक रूप से कितनी धनी रही है जहां खेतों में धान कि रोप करते समय भी मज़दूरों द्वारा ख़ास गीत गाए जाते हैं। भगैत गायन इस क्षेत्र की प्रसिध आस्था का द्योतक है जिसे बार बार नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है। इस क्षेत्र कि विलुप्त हो रही लोक परम्पराएं एवं लोकगीत जैसे जाता चलाते समय का गीत, ढेकी एवं ऊखल चलाते समय का गीत, सूत काटते समय का गीत , मधुश्रावणी गीत, विषहरा गीत, सलहेस और राजा चुहरमल के गीतों का प्रदर्शन मंच से क्यूँ नहीं हो सका। वहीं मिथिला पेंटिंग, अरिपन, दीप एवं स्थानीय सरोकारों से जुड़ाव रखने वाले लघु नाटिकाओं का प्रदर्शन क्यूँ नहीं हो सका। इस ग्राम के युवकों द्वारा संग्रहित पुरातातविक अवशेषों एवं पांडुलिपियों कि प्रदर्शनी क्यूँ नहीं हो सकी।

सांस्कृतिक कार्यकर्मों में भी मैथिलि से ज्यादा भोजपुरी कलाकारों को तरजीह दिए जाने से यह परिलक्षित होता है कि प्रशासन भोजपुरी फूहड़ गानों से लोगों में उन्माद पैदा कर इस स्थल को बदनाम करने की साजिश रच रहा है। 

इस वर्ष महोत्सव के पूर्व तैयरियों को लेकर भी प्रशासन ने संविदा के संवेदकों के भरोसे ही छोड़ दिया। 

महोत्सव के दशहरा के दो और तीन पूजा के बीच आयोजन के पीछे प्रशासनिक मज़बूरी चाहे जो भी हो परन्तु एक बात तो तय हो चुकी है और ग्रामीणों में भी इस बात की चर्चा है की आज से दो वर्ष पूर्व लोग दशहरा मेला देखने महिषी आया करते थे जिसमे जुटने वाली भीड़ के चलते अच्छे खासे बेरोजगारों को रोजगार मिल जाया करता था परन्तु अब सिर्फ लोग महोत्सव देखने महिषी आते हैं जिसमे आयोजन स्थल कि दूरी माँ उग्रतारा के मंदिर से लगभग दो किलोमीटर है। इससे सरकारी अधिकारीयों को तो रोजगार के अवसर प्राप्त हो जाते है परन्तु ग्रामीण बेरोजगार ही रह जाते हैं। माँ उग्रतारा स्थान में भी सन्नाटा फैला रहता है। दशहरा के दौरान मंदिर में होने वाली आमदनी में भी काफी ह्रास हुआ है। 

ज़रुरत है इस पर विचार करने की कि महोत्सव के दौरान सामाजिक सहभागिता को कैसे बढ़ाया जाए? इसके लिए आयोजन के पूर्व जो बैठक जिलाधिकारी के कक्ष में आयोजित होती है उसे ग्रामीणों के बीच भी आयोजित किया जाये। अगर सम्भव हो तो प्रशासन एवं ग्रामीण दोनों को मिलकर आयोजन स्थल मंदिर के इर्द गिर्द सुनिश्चित करना होगा।

प्रशासनिक स्तर पर इस बात की समीक्षा भी ज़रूर होनी चाहिए की महोत्सव आयोजन के साथ इस वर्ष इस स्थल के विकास की कौन सी योजना लायी गयी और उसका क्रियान्वयन कैसे होगा, तभी उग्रतारा सांस्कृतिक महोत्सव की सही अर्थों में सार्थकता सिद्ध होगी।

1 comment:

Dev Nath Pathak said...

I am in complete agreement with the observations of Sri Kundan Mishra.